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नाटक-एकाँकी >> राखी की लाज

राखी की लाज

वृंदावनलाल वर्मा

प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :216
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1725
आईएसबीएन :81-7315-254-3

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प्रस्तुत है बीरबल, जहाँदारशाह के जीवन पर आधारित नाटक...

Rakhi ki laj

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

परिचय

विंध्यखंड में क्या, हिंदुस्थान भर में सावन बड़े उत्साह के साथ मनाया जाता है। बहन भाई को राखी बाँधती है और भाई उसको कुछ देता है। असल में परंपरा इस राखी के डोरे द्वारा बहन के सिर पर भाई की रक्षा का हाथ रखवा देने की है, जो कभी न हटना चाहिए। प्रतिवर्ष सावन की पूनो को इस बंधन की आवृत्ति होती है। जब कोई लड़की या स्त्री किसी ऐसे पुरुष को राखी बाँध देती है, जो उसका भाई नहीं है, तब वह राखी उन दोनों के बीच में भाई बहन का संबंध स्थापित कर देती है और इस बहन की रक्षा का भार उस भाई पर आ जाता है। अधिकांश पुरुष इस भार को पैसे दे-दिवाकर सिर से उतार देते हैं। और करें भी तो क्या ! इतनी राखियाँ हाथ में पड़ जाती हैं कि समस्या का हल परंपरा ने पैसे या चाँदी के दान द्वारा सहज कर दिया है।
परंतु आवारा मेघराज की गाँठ में राखी बँधने के समय पैसे न थे, अथवा वह राखी बाँधने वाली अपनी बहन को पैसों से बढ़कर कुछ और देना चाहता था-और उसने दिया।

सन् 1941 में झाँसी जिले के ‘सकरार’ नामक गाँव में एक डाका पड़ा। वहाँ के निवासियों ने लाठी से बंदूक का मुकाबला किया और ठोंक-पीटकर डाकुओं को भगा दिया। गिरोह नामी सरदार शेरसिंह का था। गिरोह में एक आदमी था, जिसने एक लड़की की रक्षा करने में अपने गिरोह का सारा उद्यम बिगाड़ दिया। बरुआसागर में विख्यात धनी सेठ मूलचंद पर सन् 1922 में डाका पड़ा था। डाकुओं ने थाने को घेर लिया और सेठ के घर में बाहर से नसेनी लगाकर घुस पड़े। बाहर का दरवाजा भीतर से खोलकर अपने अनेक साथियों को भीतर कर लिया। वे लोग सेठ मूलचंद की नवविवाहिता पत्नी की ओर लपके। एक डाकू बंदूक लेकर उसके पास खड़ा हो गया। बोला, ‘खबरदार ! इस बहू की ओर मत आना।’

डाकू मजबूर हो गए। उन्होंने डाका तो डाला, परंतु उस उदार हृदय डाकू की रखवाली के कारण वे उस स्त्री के पास नहीं फटक सके। मैं उन दिनों सरकारी वकील था। मैंने सेशंस में उस मुकदमे को किया था। सेठ मूलचंद ने उस रक्षक डाकू के विषय में यही बयान दिया था। वह डाका भी अंत में विफल रहा। सबका सब माल दूसरे ही दिन बेतवा नदी की चट्टानों की ओट में छिपे हुए डाकुओं से आर्म्ड पुलिस ने बरामद कर लिया।

चिरगाँव के निकटवर्ती गाँव भरतपुरा में मेरे मित्र पं. फूलचंद पुरोहित एक प्रबल व्यक्ति थे। वे शत्रु और मित्र-दोनों प्रकार से प्रचंड थे। उनके गाँव में एक बारात आई। वर के प्रति लड़की और उसके पिता की विरक्ति थी; परंतु वे दोनों परिस्थिति के कारण विवश हो गए थे। फूलचंद को मालूम हो गया। उन्होंने तुरंत बारात को लौटाया-लौटाया ही नहीं, वास्तव में गाँव से भगा दिया। उसी रात दूसरे गाँव से एक अच्छा और अनुकूल वर खोजा और दूसरे दिन ब्याह करवा दिया।

बाँसी गाँव में 1944 में प्लेग और 1945 में हैजे का प्रकोप हुआ। डॉक्टरों ने भी कुछ किया; परंतु वहाँ के थोड़े से उत्साही स्वयंसेवकों ने बहुत कुछ किया। बाँसी का नाला एक आकर्षण की वस्तु है। उसके पुल से नीचे की ओर दोनों किनारों पर सघन वृक्षावलि है। यह स्थान ललितपुर से उत्तर की ओर बारह मील है और झाँसी से दक्षिण की ओर सागर सड़क पर लगभग पैंतालीस मील। मैं वहाँ होकर अनेक बार निकला हूँ और कभी-कभी उस नाले के पास ठहरा हूँ। डाकू भी कई बार उस नाले के पास ठहरे हैं।

1946 की जन्माष्टमी की रात को ओरछा राज्य के ‘उबौरा’ ग्राम में एक दुःखांत घटना घट गई। गरमियों में वहाँ एक बारात आई थी। एक लड़की का उस बारात के सजातीय युवक से प्रेम हो गया। बाप को लड़की की इच्छा भी मालूम हो गई; परंतु उसने हठपूर्वक आतुरता के साथ लड़की का ब्याह किसी दूसरे पुरुष के साथ कर दिया। उस लड़की को अपने घर ले जाने के लिए वह पुरुष जन्माष्टमी के दिन आया। लड़की ने रात को कुएँ में गिरकर अपनी जान दे दी।
एक घटना मऊरानीपुर में सन् 1942 में इसी प्रकार हुई थी। उसमें लड़की तो विवश अपनी ससुराल चली गई, परंतु जिस सजातीय लड़के से उसका प्रेम हो गया था और जिसके साथ ब्याह नहीं हो पाया, वह घर से ऐसा निकला कि उसका कभी पता न लगा।

हमारे देश में शायद इस तरह की दुःखांत घटनाएँ और अधिक न हों, इसी आशा पर मैंने इस घटनाओं के मूल तत्त्वों को एक गाँव और एक समय में गूँथ दिया है और घटना को सुखांत कर दिया है। एक भावना और भी थी-सावन के राखीबंद भाई बहन की कथा को दुःखांत क्यों बनाया जाए ?
मैं राखी की सुंदर प्रथा के चिरकाल तक जीवित रहने का आकांक्षी हूँ। स्त्री को शीघ्र ही आर्थिक स्वतंत्रता मिलेगी और स्त्री तथा पुरुष बराबरी पर आएँगे; परंतु स्त्री को सम्मान की दृष्टि से देखने का यदि यह एक अतिरिक्त साधन-रक्षाबंधन समाज में बना रहे तो क्या कोई हानि होगी ?

कजरियों इत्यादि के जो गीत विंध्यखंड में प्रचलित हैं, उनको मैंने ज्यों का त्यों रख दिया है। उनमें जो सजातीयता हमारी ग्रामीण जनता पाती है वह मेरे-मैं छंदकार हूँ भी नहीं-या किसी और के बनाए गीतों में शायद जनता न पाती।
कजरियों की पूजा के समय जो कहानी विंध्यखंड में स्त्रियाँ हंस- हँसकर कहती हैं, उसमें एक कुतूहल है और नृशास्त्र के विद्यार्थियों के लिए कुछ खोज की सामग्री भी, इसलिए मैंने उसको भी दे दिया है।
इस नाटक को रंगमंच पर खेलने में यदि खेलने वालों को कोई कठिनाई अवगत हो तो उसकी जिम्मेदारी मेरी और यदि सुविधा जान पड़े तो वह खेलने वालों का कौशल होगा।


झाँसी
29.8.1946

वृंदावनलाल वर्मा


पात्र परिचय



सोमेश्वर           एक पढ़ा लिखा ग्रामीण युवक
चाँदखाँ            करीमुन्निसा का भाई, उसी गाँव का, जिसका सोमेश्वर है
बालाराम         गाँव का एक धनाढ्य व्यक्ति चंपा का पिता
मेघराज           सपेरा
चंपा                बालाराम की लड़की
करीमुन्निसा      चंपा की पड़ोसिन लड़की, चाँदखाँ की बहन
लुटेरे, लुटेरों, का सरदार, सिपाही, थानेदार, जमादार, डॉक्टर, नौकर, नाई, लड़के, लड़कियाँ, अन्य स्त्रियाँ इत्यादि।


पहला अंक



पहला दृश्य



(सवेरा हुए कुछ देर हो गई है। परंतु बदली के कारण सूर्य नहीं दिखलाई पड़ रहा है। ठंडी हवा चल रही है। सावन सुदी चौदस का दिन है। बाँसी नामक गाँव के बीच में होकर जो चौड़ी पक्की सड़क निकली है वह लहर खाकर आगे एक नाले के ऊपर होकर गई है। नाले पर पुल बँधा है। यह पुल बांसी से नीचे थोड़ी दूर है। पुल से नीचे की तरफ, थोडी दूर हटकर, नाले के दोनों किनारों पर हरेल सघन वृक्ष हैं. वहाँ पर पानी गहरा है।

 चारों ओर हरियाली है। पुल के आगे इस पक्की सड़क से फूटकर एक कच्चा मार्ग जंगल और पहाड़ियों में होकर एक गाँव को गया है, जो बाँसी से दो कोस दूर है। इस कच्चे मार्ग से पक्की सड़क की ओर बाँसी जाने के लिए मेघराज सपेरा आ रहा है। मेघराज लगभग बीस साल का, साँवले रंग का, सुरूप युवक है। चेहरा भरा हुआ, आँखें बड़ी, पुतलियाँ काली, नाक सीधी, छोटी-छोटी मूँछें और हलकी दाढ़ी, जिसके छोटे-छोटे छल्ले रचे गए हैं। गले में मालाएँ-रुद्राक्ष और लाल नीले काँच के बड़े गुरियों की। हाथ में लोहे के कड़े। भौंहों के बीच में तेल में मथी हुई कालोंछ का आड़ा टीका और चौड़े माथे पर सिंदूर का चकचका त्रिपुंड्र। कान में पीतल के बाले। उँगलियों में लाल काँच की जडी हुई पीतल की अँगूठियाँ और ताँबे के छल्ले।

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